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भारतीय पत्रकारिता का स्वर्णिम इतिहास रहा है। आजादी के आंदोलन के समय पत्रकारिता सत्ता प्रतिष्ठान को चुनौती देने के साथ-साथ सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों से जुड़कर जनता को जागरूक करने में लगी थी। तब पत्रकारिता का स्वभाव मिशनरी था। पराधीनता के दौरान ब्रिटिश नीतियों का विरोध तो आजादी के बाद देश के अंदर लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने में सहयोगी भूमिका में रही। भारतीय पत्रकारिता बदलाव की वाहक और कमजोर वर्ग की हितैषी रही है। जो पत्रकारिता आजादी के आंदोलन की वाहक और देश के नवनिर्माण का जरिया बनी, वह आज लाभ-हानि के लोभ में जन सरोकारों को भूलकर कॉरपोरेट की पिछलग्गू हो गई है। मुख्यधारा की मीडिया इस समय साख और विश्वसनीयता के संकट से गुजर रही है। सच्ची सूचना देने का काम सोशल मीडिया ने ले लिया है। सत्ता प्रतिष्ठान को चुनौती देने और उसकी कमियों को उजागर करने के बजाय मुख्यधारा की मीडिया दासी बनकर उसके गुणगान में लगी है। सत्ता अपने कर्तव्यों से भटक गई है और पत्रकारिता उसके पीछे चल रही है। यह सब अनायास नहीं हो रहा है। इसके पीछे गंभीर कारण हैं।
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